logo

Welcome to Ayushya Mandiram!

Explore our holistic wellness programs, spiritual workshops, and community events. Stay updated with our latest news and offerings to enhance your journey towards well-being.
Working Hours
Monday - Friday 06:00AM - 19:00PM
Saturday - Sunday CLOSED
From Our Gallery

Mon - Fri 9.00 - 17.00 Sunday CLOSED

91-9873490919

212 LR, Model Town, Rewari, HR

Top

पाप और रोगों का संबंध: एक अनजाना रिश्ता

Ayushya Mandiram / Lifestyle  / पाप और रोगों का संबंध: एक अनजाना रिश्ता
latest news

पाप और रोगों का संबंध: एक अनजाना रिश्ता

रोगों का मूल कारण क्या है?

आयुर्वेद के अनुसार व्याधिचिकित्सा के दो अंग हैं।रोगानुत्पादनीयअर्थ व्याधि हो ही नहीं, इसका प्रयास किया जाए औररोगनिवर्तनीयअर्थात् व्याधि उत्पन्न होने पर उसे दूर करने का प्रयास किया जाये। इन दोनों में से आयुर्वेद की दृष्टि में प्रथम अंग (व्याधि हो ही नहीं) का महत्त्व अधिक है और इसी प्रथम अंग की ओर ध्यान देना अति आवश्यक है। रोग का प्रादुर्भाव हो ही नहीं, इसलिये यह जानना आवश्यक है कि रोगों का मूल कारण क्या है?

पाप और रोगों का एक गहरा रिश्ता है। रोग शरीर में हो या मन में होंइनके बीज अवचेतन मन की परतों में छिपे होते हैं। आयुर्वेद को व्यवस्थित रुप देने वाले महर्षि चरक के अनुसार पिछले जन्मों के पाप (अयोग्य कर्म से उत्पन्न) इस जन्म में रोग बनकर सताते हैं।

पापेन जायतेः व्याधिः पापेन जायते जरा। पापेन जायते दैन्यं दुःखं शोको भयंकरः।। तस्मात् पापं महावैरं दोषबीजमंगलम्। भारते संततं सन्तो नाचरन्ति भयातुराः।। -ब्रह्मखण्ड 16।51-52

ब्रह्मखण्ड में कहा हैरोगों के साथ पापों की सदा अटूट मैत्री होती है। पाप ही रोग, वृद्धावस्था तथा नाना प्रकार के विघ्नों का बीज हैं। पाप से रोग होता है, पाप से बुढापा आता है और पाप से ही दैन्य, दुःख एवं भयंकर शोक की उत्पत्ति होती है। वह महान् वैर उत्पन्न करने वाला, दोषों का बीज और अमंगलकारी होता है। इसलिए भारत के सज्जन पुरुष सदा भयातुर हो कभी पाप का आचरण नहीं करते।
लेकिन जो अपने धर्म के आचरण में लगा हुआ है, यमनियम का पालन करता है। गुरु, विद्वान, संत, देवता और अतिथियों का भक्त है, तपस्या में आसक्त है, सात्विक आहार ग्रहण करता है, व्रत और उपवास धारण करता है तथा श्रीहरि की अराधना में संलग्न है, ऐसे पुरुषों के पास जराअवस्था नहीं जाती है और दुर्जय रोगसमूह ही उस पर आक्रमण करते हैं।

पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये। बाधते व्याधिरूपेण तस्य जप्यादिभिः: शम:।। -(शाता.स्मृती1/15)

पूर्वजन्म में किये पापों से रोग होते हैं और फिर रोगजनित चिन्ह भी प्रकट होते हैं, परन्तु जप, दान, स्वाध्याय आदि दैवव्यपाश्रय से उनकी शांति भी हो जाती है अर्थात् वे रोग ठीक हो जाते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार रोग के प्रकार

रोग तीन प्रकार के होते हैंकर्मज, दोषज तथा उभयज। कर्मज वे हैं जो अयोग्य कर्म से उत्पन्न होते हैं। दोषज वे हैं, जो त्रिदोषों से उत्पन्न होते हैं और दोनों से उत्पन्न उभयज कहलाते हैं। कर्मज रोग औषधि से दूर नहीं होते; अपितु शुभ आचरण, जपतपअनुष्ठानादि कर्मों से दूर होते हैं। दोषज रोग औषधि से ठीक होते हैं और उभयज रोग औषधि से दबते हैं, किन्तु फिर प्रादुर्भूत होते हैं तथा औषधि के साथसाथ जपतपदान आदि से नष्ट होते हैं।

व्याधि (रोग) हो ही नहीं, इसके उपाय

एक प्रसिद्ध उक्ति है, ‘आचार: परमो धर्म:’- आचारविचार परम धर्म है। सदाचार में लगे मनुष्य का शरीर स्वस्थ, शांत और बुद्धि निर्मल होती है एवं उसका अंत:कारण शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है। शुद्ध अंत:कारण ही वस्तुत: भगवान के चिंतन और ध्यान योग्य होता है, उसी का भगवान में स्थिर आसान लगता है।

श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ् निबद्धं स्वेषु कर्मसु । धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रितः ॥ आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः । आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च ॥ सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः । श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति ॥ -(मनुस्मृति 4/155-158)

श्रुति और स्मृति में कथित अपने नित्यकर्मों के अङ्गभूत धर्म का मूलसदाचार का सावधानीपूर्वक सेवन करना चाहिये। आचारधर्म का पालन करने से मनुष्य आयु, इच्छानुरूप संतति और अक्षय धन को प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, सदाचार से अल्पमृत्यु आदि का भी नाश होता है। जो पुरुष दुराचारी है, उसकी लोक में निन्दा होती है, वह सदा दुःख भोगता रहता है तथा रोगी और अल्पायु (कम उम्रवाला) होता है। विद्या आदि सब गुणों से हीन पुरुष भी यदि सदाचारी और श्रद्धावान् तथा ईर्ष्यारहित होता है तो वह भी सौ वर्षों तक जीता है।

त्यागः प्रज्ञापराधानामिन्द्रियोपशमः स्मृतिः । देशकालात्मविज्ञानं सवृत्तस्यानुवर्तनम् ।। आगन्तूनामनुत्पत्तावेष मार्गो निदर्शितः । प्राज्ञः प्रागेव तत् कुर्याद्धितं विद्याद्यदात्मनः ॥

प्रज्ञापराध (जानबूझकर की जानेवाली गलतियों) – को त्यागना, इन्द्रियोंका संयम रखना, ठीकठीक ध्यान रखना, देश, काल और अपनेआपको समझना तथा सदाचार से चलना आदिये सब आगन्तुक रोगों से बचने के मार्ग हैं। बुद्धिमान् मनुष्य को रोगोत्पत्ति के पूर्व ही ऐसे कार्य करने चाहिये, जिनसे कि रोगों की उत्पत्ति ही हो और अपना स्वास्थ्य बना रहे।

नरो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः । दाता समः सत्यपरः क्षमावा-भवत्यरोगः ।। नाप्तोपसेवी च मतिर्वचः कर्म सुखानुबन्धं सत्त्वं विधेयं विशदा च बुद्धिः । ज्ञानं तपस्तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुपतन्ति रोगाः ॥ -अष्टाङ्गसंग्रहः सूत्रस्थानम् अध्याय ५-६३

हितकारी आहार और विहार का सेवन करने वाला, विचारपूर्वक काम करने वाला, कामक्रोधादि विषयों में आसक्त रहनेवाला, सभी प्राणियों पर समदृष्टि रखने वाला, सत्य बोलने में तत्पर रहने वाला, सहनशील और आप्तपुरुषों की सेवा करने वाला मनुष्य अरोग (रोगरहित) रहता है। सुख देने वाली मति, सुखकारक वचन और सुखकारक कर्म, अपने अधीन मन तथा शुद्ध पापरहित बुद्धि जिसके पास है और जो ज्ञान प्राप्त करने, तपस्या करने और योगसिद्ध करने में तत्पर रहता है, उसे शारीरिक और मानसिक कोई भी रोग नहीं होते (वह सदा स्वस्थ और दीर्घायु बना रहता है)

AM

No Comments

Post a Comment

error: Content is protected !!