प्राणायाम: कथं सिद्ध:?
प्राणशक्ति तथा प्राणायाम की उपयोगिता
प्राण ही मनुष्य के स्वास्थ्य एवं रूग्णता का कारण है। शरीर आधार है तथा प्राण उसकी शक्ति। मन एवं शरीर प्राण के बिना नहीं रह सकते। प्राण विद्या के द्वारा प्राणशक्ति को विभाजित कर शरीर के प्रत्येक केन्द्र में उपयुक्त रूप से भेजा जा सकता है। इस विद्या के द्वारा प्राणशक्ति की असंतुलित अवस्था में संतुलन ला सकते हैं। इसके अलावा प्राणशक्ति के अभाव में यदि कोई रोग उत्पन्न हुआ हो तो जहाँ प्राणशक्ति अतिरिक्त मात्रा में है वहाँ से अतिरिक्त प्राणशक्ति को रूग्न अंग में प्रसारित कर उसकी क्षतिपूर्ति की जा सकती है।
शरीर की रक्षा के लिये जिस प्रकार अन्न की उपयोगिता है, शरीरस्थ रोगनाश के लिये जैसे औषधियों का विनियोग होता है, उसी प्रकार शरीरस्थ बाहरी और भीतरी (बाह्याभ्यन्तर) रोगोंके समूल नाश के लिये प्राणायाम का प्रयोग होता है। जैसा कि कहा भी गया है-
प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत् । अयुक्ताभ्यासयोगेन सर्वरोगसमुद्भवः ॥ हिक्का कासश्च श्वासश्च शिरः कर्णाक्षिवेदनाः । भवन्ति विविधा दोषाः पवनस्य व्यतिक्रमात् ॥
अर्थात् समुचित (विधिपूर्वक) प्राणायाम द्वारा सभी रोगों का नाश हो जाता है और अविधिपूर्वक प्राणायाम के अभ्यास से सब रोग उत्पन्न हो सकते हैं। उनमें विशेष रूप से हिचकी, खाँसी और श्वास (साँस) का फूलना, सिर, कान एवं नेत्र में वेदना आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।
नाड़ी शुद्धि की आवश्यकता
आत्मिक प्रगति में शारीरिक मलिनता के साथ-साथ मानसिक मलिनता भी बाधक बनती है या फिर योग के अनुसार स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म एवं कारण शरीर को भी स्वस्थ एवं स्वच्छ रखने की आवश्यकता है। क्योंकि स्थूल से सूक्ष्म तत्व ज्यादा प्रभाव डालता है तथा नाड़ियाँ सूक्ष्म शरीर का एक अभिन्न अंग हैं। नाड़ियों की मलीनता के कारण आत्मिक प्रगति सम्भव नहीं। इस प्रकार का उल्लेख योग शास्त्रों में भी प्राप्त होता है।
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मलाकुलासु नाड़ीषु मारूतो नैव मध्यमः। कथं स्यादुन्मनीभावः कार्यसिद्धिः कथं भवेत्।। 52 अर्थात् – जब तक नाड़ियों में मल व्याप्त है तब तक प्राण (वायु) मध्यम अर्थात् सुषुम्ना मार्ग में नहीं चल सकता किन्तु मल शुद्धि होने पर ही वह सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करेगा और जब तक मल नाड़ियों में विद्यमान है तब तक उन्मनी भाव कहाँ? पुनः मोक्ष रूप कार्य की सिद्धि कैसे हो सकती है?
मलाकुलासु नाड़ीषु मारूतो नैव गच्छति। प्राणायामः कथं सिद्धः तत्वज्ञानं कथं भवेत्।। तस्मादादौ नाड़ी शुद्धि प्राणायाम ततोऽभ्यसेत्। 53 अर्थात् – मलों से भरी हुई नाड़ियों में प्राण-वायु अवरूद्ध रहती है। ऐसे अवरोधों की स्थिति में प्राणायाम कैसे सफल हो? इसलिए प्रथम नाड़ी-शोधन करना चाहिए, उसके बाद प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।
शुद्धिमेति यदा सर्वं नाड़ी चक्रं मलाकुलम्। तदैव जायते योगी, प्राण संग्रहणे क्षमः।। 54 मलों से भरे हुए नाड़ी चक्रों की जब शुद्धि हो जाती है तो योगी प्राण संग्रह करने में समर्थ होता है।
प्राणायाम ततः कुर्यान्नित्यं सात्विकयाधिया। यथा सुषुम्ना नाडीस्था मलाः शुद्धि प्रयान्ति च।। 55 अर्थात् – अतः सात्विक बुद्धि से नित्य प्रति प्राणायाम करना चाहिए जिससे सुषुम्ना स्थित मल की शुद्धि होती जाए।
यथा तु नाड़ी शुद्धिः स्याद् योगिनस्तत्वदर्शिनः। तदा विध्वस्तदोषश्च भवेदारम्भ सम्भवः।। 56 अर्थात्- जब नाड़ी शुद्धि होगी तब दोष शुद्धि होगी। उसी स्थिति में योग का आरम्भ सम्भव है।
यदा तु नाड़ी शुद्धिस्यात् तथा चिह्नानिबाह्यतः। कायस्त कृशता कान्तिस्तदा जायते निष्चितम्।। 57 अर्थात् – जिस समय नाड़ियों की शुद्धि होती है इस समय के चिह्न हैं- शरीर की कृशता और कान्ति में निष्चित रूप से वृद्धि होना।
नाडीशोधन प्राणायाम
नाड़ी शोधन प्राणायाम – नाडी शब्द ‘नड्’ या ‘नाड्य गमने’ धातु से बनी है। जिसका अर्थ होता है-गतिशील होना। जैसे नदियों में जल बहता है वैसे शरीर की नाड़ीयों में रक्त का प्रवाह होता है। प्राणायाम के पूर्व नाड़ीशोधन को आवश्यक माना गया है। नाड़ी शोधन क्रिया का अभ्यास अपने शरीर के भीतर प्राण को चलाने की क्रिया है, प्राण को जाग्रत करने की क्रिया है। लेकिन प्राण की जागृत्ति और शरीर प्राणों का स्वतन्त्र प्रवाह तभी सम्भव है, जब हमारे शरीर की सभी नाडियों अवरोध रहित बन जाये क्योंकि मनुष्य के रहन-सहन में अज्ञान अथवा प्रमादवश जो भूलें हो जाती है उनके कारण उसके शरीर में मल वृद्धि होती जाती है। यह मल वृद्धि केवल भोजन पचाने वाली ऑते और मलाशय में ही नहीं होती वरन् उस मल में से दूषित गैसें निकल कर रक्त-प्रवाह में मिल जाती है और शरीर के समस्न नाड़ी जाल को दूषित और अवरूद्ध करता है। हमारे शरीर में 72 हजार नाडियाँ हैं। इन नाडियों में किसी म विसी प्रकार अवरोध उत्पन्न होने से व्याधियों उत्पन्न होता है। नाडियों के शुद्ध होने से रक्त का प्रवाह अबाध गति से समस्त शरीर में बहने लगता है और उसकी चैतन्यता, स्फूर्ति, शक्ति पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ जाता है। इसके लिए नाड़ी शोधन प्राणायाम विशेष रूप से प्रभावशाली सिद्ध होता है।
नाडी के प्रकार
हमारे शरीर में अनेक नाडियाँ हैं, जिस प्रकार हार में फूल गुथे रहते हैं, उसी प्रकार ये नाडियाँ आपस में गुथी हुई हैं और उनकी उलझन से प्राणशक्ति के प्रवाह में बाधा पड़ती है अत: जब तक इन नाडियों का शुद्धिकरण न हो, तब तब व्यक्तिः प्राणायाम का अभ्यास नहीं कर सकता।
इड़ा व पिंगला में संतुलन की आवश्यकता
यद्यपि इड़ा और पिंगला इनकी सक्रियता के स्तर भिन्न हैं तथापि वे एक-दूसरे की पूरक हैं और इनका संतुलन स्वास्थ्य और मन की शान्ति के लिए बहुत जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है कि संतुलन से ही आगे बढ़ने का द्वार खुल जाता है और कार्य करने का नया तरीका उत्पन्न होता है। प्राण एवं मन का संबंध घनिष्ठ है परस्पर। क्योंकि हठप्रदीपिका में कहा है ‘चले वातं चले चिन्त निश्चले निश्चलं भवेत्। 34 अर्थात् – जब तक वायु चलती है तब तक मन भी अस्थिर रहता है तथा जब वायु अर्थात् प्राण स्थिर हो जाता है तब मन अपने-आप स्थिर हो जाता है। प्राण पर या श्वास-प्रश्वास पर जब हम एकाग्रता का अभ्यास करते हैं तो मन स्थिर हो जाता है।
महर्षि घेरण्ड के अनुसार- आदौ स्थानं तथा कालं मिताहार तथापरम् । नाडीशुद्धिश्च ततः पश्चात्प्राणायामां च साध्येत्।।5/2 भावार्थ:- प्रथम; स्थान और काल का चुनाव, मिताहार और नाड़ी शुद्धि करे। इसके बाद प्राणायाम कर अभ्यास करना चाहिए।
नाडी शोधन विधि
हठप्रदीपिका (2/7-10) के अनुसार कुम्भक सहित लोम-विलोम का लगातार तीन महिने तक अभ्यास करने से नाडीशुद्धि हो जाती है। यद्यपि हठप्रदीपिका ग्रन्थ में नाडीशोधन का उल्लेख है, किन्तु इसका वर्णन प्राणायाम के फल के रूप में किया गया है- ‘विधिवत्प्राणसंयमैर्नाडीचक्रे विशोधिते’ (ह. प्र. 2/41)
कुशासने मृगाजिने व्याघ्राजिने च कम्बते । स्थूलासने समासीनः प्राङ्ङ्गमुखो वाप्युदङ्मुखः ॥ नाडीशुद्धिं समासाद्य प्रणायामं समभ्यसेत्॥ (532) भावार्थ: कुश का मोटा आसन, मृगचर्म या सिंहचर्म अथवा कम्बल में से किसी प्रकार के आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके नाडी शुद्धि होने पर प्राणायाम का साधन करना चाहिए। हठयोगप्रदीपिका के अनुसार नाडीशोधन विधि –
बद्धपद्मासने योगी प्राणं चन्द्रेण पूरवेत्। धारयित्वा यथाशक्ति भूयः सूर्येण रेचयेत् ॥ (217) प्राणं सूर्येण चाकृष्य पूरयेदुदरं शनैः। विधिवत्कुम्भकं कृत्वा पुनश्यन्द्रेण रेचयेत् ॥ (2/8)
भावार्थ – योगाभ्यास करने वाले को पद्मासन में बैठकर बायें नासाछिद्र से श्वास लेनी चाहिए और तब सामर्थ्य अनुसार उसे रोक कर, दायें नासाछिद्र से छोड़नी चाहिए। इसके बाद दायें नासाछिद्र से श्वास लेकर धीरे-धीरे उदर क वायु में भर लेना चाहिए और तब पूर्ववत् श्वास-रोध करके उसे बायें नासाछिद्र से छोड़नी चाहिए।
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